Saturday, September 18, 2010

सुबह की चाय

अखबार लेता हूँ हाथ में और घूँट भरता हूँ चाय का
कहाँ कितना लाल खून बहा हैं इंसानों का
बस वही ख़बरें काले बड़े अक्षरों में छपी होती हैं

घिन आती हैं अब ये सब पढ़के
कहीं ज़मीन, कहीं नदी, कहीं भाषा के नाम पे कितनी लाशें गिरी हैं
बस इसीका ब्यौरा होता हैं, तस्वीरों के साथ

चाहता तो नहीं के इन ख़बरों को याद रखूँ
पर पता नहीं कैसे घुल जाती हैं ये ख़बरें ज़ेहन में
और आँखों के कमरे की दीवार पे जड़ जाती हैं

कानो में रह रह के गोलियों की आवाज़ और बम के धमाके सुनाई पड़ते हैं
और उसके बाद चीखें सुनाई पड़ती हैं
फ़ेंक देता हूँ अखबार एक तरफ, फिर भी

सुबह की चाय बहुत कडवी हो जाती हैं.....

4 comments:

  1. बहुत बढ़िया दोस्त... बिल्कुल सच लिखा है... लिखते रहो...

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  2. i am at a loss of words........ kitni baar likhun, bahut achche bahut achche ..............

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  3. mein bhi..bas itna hi kahoonga..Shukriya

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