Thursday, September 30, 2010

ताक-झाँक - Written a few hrs before the verdict of the Ram Janmabhoomi Babri Masjid Case

इंसान सुनाएगा आज फैसला के किसका ख़ुदा कहाँ रहेगा..
ख़ुदा का मुआमला हैं..हमे क्या ज़रुरत हैं परेशान होने की?
हमे क्या ज़रुरत हैं दूसरों के मुआमलो में दखल देने की?

जिसने काइनात बनाई हैं पूरी..वो क्या चंद लोगों की बात मानके खुश हो जाएगा?
बेशक बना सकता हैं घर अपने लिए जहां चाहे वो...
हम क्यों परेशान होते हैं के कहाँ रहेगा?

दुसरे के घर में ताक-झाँक करने की आदत से हम कब बाज़ आयेंगे?

Wednesday, September 29, 2010

रंग

एक खाली उदास सफ़ेद कमरा
बीच में एक बूढा कथ्थई center table
उसपे पड़ा हुआ एक पीला पड़ गया mug
mug में भाप उगलती हुई black coffee
खिड़की से अन्दर आती केसरी धुप
जब मुझ तक पहुँचती हैं coffee की गीली बेरंग भाप से छनके
तुम्हारी तस्वीर बानाती हैं सांतों रंगों से मेरी नज़रों के सामने
मेरा कमरा कुछ देर के लिए रंगों से भर जाता हैं...

Tuesday, September 28, 2010

बादल

एक बादल भरी दोपहरी में झील की सतह पर, ढूंढ रहा था एक बूँद, जो सबसे अज़ीज़ थी उसे
और कल रात बरसात में अपने दोस्तों के साथ झील में नहाने को टपकी थी...
बदल को बिना बताये..और अब तक वापस नहीं आई थी...

मुझे देखा तो अपनी भरी आँखों से बादल ने पुछा..."क्या देखा हैं तुमने उसे? छोटी सी थी वो...उसे तो अबतक ठीक से तैरना भी नहीं आता था.."

में बस देखता रह गया उसे...चल दिया वहां से...
मेरी आँखों में झील उतर आई थी....

Saturday, September 18, 2010

सुबह की चाय

अखबार लेता हूँ हाथ में और घूँट भरता हूँ चाय का
कहाँ कितना लाल खून बहा हैं इंसानों का
बस वही ख़बरें काले बड़े अक्षरों में छपी होती हैं

घिन आती हैं अब ये सब पढ़के
कहीं ज़मीन, कहीं नदी, कहीं भाषा के नाम पे कितनी लाशें गिरी हैं
बस इसीका ब्यौरा होता हैं, तस्वीरों के साथ

चाहता तो नहीं के इन ख़बरों को याद रखूँ
पर पता नहीं कैसे घुल जाती हैं ये ख़बरें ज़ेहन में
और आँखों के कमरे की दीवार पे जड़ जाती हैं

कानो में रह रह के गोलियों की आवाज़ और बम के धमाके सुनाई पड़ते हैं
और उसके बाद चीखें सुनाई पड़ती हैं
फ़ेंक देता हूँ अखबार एक तरफ, फिर भी

सुबह की चाय बहुत कडवी हो जाती हैं.....

Friday, September 17, 2010

में उड़ना चाहता हूँ

में उड़ना चाहता हूँ

नहीं करना वो, जो दुनिया करती हैं
नहीं सोचना वैसे, जैसे दुनिया सोचती हैं
मेरे दिल को जो भाये, बस वो करना चाहता हूँ

में उड़ना चाहता हूँ

क्यों रहूँ रिश्तों में बंधा हमेशा में?
क्यों जकड़ा रहूँ समाजों के खोखले नियमों से में?
में अपनी मंजिल तक, अपनी राह पे चलके जाना चाहता हूँ

में उड़ना चाहता हूँ

मालूम हैं मुश्किल बहुत हैं राह मेरी,
जानता हूँ के आसमान भी खाली नहीं ठोकरों से,
पर में एक बार सब भूल के, सिर्फ दिल की मानना चाहता हूँ

में उड़ना चाहता हूँ

ख्वाब बड़े हैं मेरे तो क्या करून में?
क्या खुद की बनाई जंजीरों में फंसा रहूँ में?
आसमान बुलाता हैं बाहें खोल के मुझे...

में उड़ना चाहता हूँ

चलोगी साथ मेरे? हैं हिम्मत सब छोड़ने की?
पर काट के दुनिया के, हैं हिम्मत सपनो के पर खोलने की?
अगर हैं तो आओ..में 'अपने' आसमान पे तुम्हारा इंतज़ार करता हूँ..

में उड़ना चाहता हूँ