Sunday, March 13, 2011

मैं और मेरा शायर

तुम कौन हो जो मेरे अन्दर रहते तो हो..
पर मुझसे जुदा हो?
मेरा साया हो के मेरा ही दूसरा रूप हो?

तुम्हे दुनिया से कोई लेना-देना नहीं
न फिक्र पैसों की, न दुनियादारी की
न तुम्हे कुछ काम है, नाही आराम करते हो कभी

मैं सोचता हूँ कभी
के कौनसा मैं..मैं हूँ?
वो मैं जो जीता है?या वो मैं जो बस जीने का नाटक करता है?

पर तुम सोचते हो...मुझसे जुदा कभी, कभी बिलकुल मेरी ही तरह
कभी मेरे ही ख्यालों को कागज़ पे रखते हो..
तो कभी मेरी ही जुबां को लफ्ज़ देते हो

तुम्हारा लिखा कभी पढता हूँ तो लगता है
के मैं-तुम बन जाऊं, तुम्हे मैं बना लूं
ऐसे ही जीऊँ, जैसे जीना होता है

पर कभी कभी तुम भी छुप जाते हो दोस्त
काम के पीछे से कभी, या कभी रोज़ मर्रा की जद्दोजेहद में से निकालना पड़ता है तुम्हे
तुम रहो मेरे साथ, मेरे सामने ताके मैं जीता रहूँ....

एक अरसा हो गया है दोस्त कुछ लिखा नहीं तुमने..
कुछ लिख दो के पता चले तुम ज़िन्दा हो अब भी मुझ में
कुछ लिख दो के पता चले..मैं अब भी जी रहा हूँ......