Wednesday, January 20, 2010

गाँव के घर का आँगन

वहां की दीवारें बातें करती हैं मुझसे, के कैसे छुपाती थी मुझे, जब हम लुक्का छूप्पी खेला करते थे
पुरानी तस्वीरोंमें से झाँक के मेरे पुरखे मुझे प्यार भरी नज़रों से देखते हैं, जब दादी उनकी बातें सुनाती हैं
वो पुरानी धुल भरी किताबों के पीले खस्ता पन्ने, मुझे वापस स्कूल ले जाते हैं
वो टूटी क्रिकेट बेट और पिचके हुए वो फूटबाल को देख, घुटने पर पड़े वो छालें फिर से हरे हो जाते हैं

गाँव के घर के आँगन में मुझे आज भी मेरा बचपन गुल्ली-डंडा खेलता दिखाई पड़ता हैं

No comments:

Post a Comment