Tuesday, January 26, 2010

माँ को ख़त

माँ... तुम बहुत याद आती हो
गाँव का घर बहुत याद आता हैं

आज यह सारी यादों से निजात पा रहा हूँ
सारे दुखों से दूर जा रहा हूँ

कोई सूरत नज़र नहीं आती
कोई रास्ता दिखाई नहीं देता

तुमने कहा था घर छोड़ ने से पहले
सच के साथ रहना तो हर राह तुम्हारी होगी

सच की राह पर ही चलाथा हमेशा
राहें तो नहीं, पर हाँ फूटपाथ का एक हिस्सा मेरा ज़रूर हुआ था

वहीँ सोता था, और वहीँ चाँद को बेल के खाता था..और कुछ खाने को था भी तो नहीं...
तेरी रोटी जैसी बात तो नहीं थी उसमें...तारों के कंकर हमेशा दात में खटकते थे

जब, कभी बहुत फीका लगता चाँद तो
गमछे से छानता था उसे, दिन के पसीने का नमक मिल जाता था उसमें

यह सख्त बिस्तर पे अब नींद नहीं आती माँ....चाँद भी अब बेस्वाद लगता हैं

गली के मोड़ पे एक नल था तो, पर बड़ा मूडी था वो भी
जब मन करे तो पानी देता, बाकी वक़्त बस बेकार पड़ा रहता था वो

पानी आता भी तो, अपने गाँव की तरह नहीं,
बस टपकता था, उसमें कोई क्या नहाये?

कई दिनों से नहाया नहीं हूँ
चमड़ी सुर्ख हो गई हैं...छिलने लगी हैं

अब और नहीं छिल सकता अपने बदन को

याद हैं, शहर आते हुए तुमने कमीज़ बना के दी थी मुझे
फूटपाथ पर करवट बदलते बदलते अब वो तार-तार हो गई हैं

अपने आप को नंगा महसूस करता हूँ
अब शर्म आती हैं मुझे...

और शर्मसार नहीं हो सकता माँ

अरे हाँ...मैंने बताया क्या तुम्हे?
यहाँ समंदर बहुत अच्छा हैं...बहुत बड़ा...

वो कभी नहीं बदलता...मेरे सेठ की तरह नहीं हैं...

में आज समंदर देखने जा रहा हूँ

आज यह सारी यादों से निजात पा रहा हूँ
सारे दुखों से दूर जा रहा हूँ

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